कविता - छोड़ दे झंडे !

अभिनव अरुण
छोड़ दे झंडे और झंखाड़े
उठाले परचम पकड़ अखाड़े
मत फंदों और जाल में फंस तू
ज़हर बुझे दातों से डंस तू
देख कोई भी बच न पाए
व्यूह तिमिर का रच न पाए

षड्यंत्रों की खाल उधेड़
ऊन भरम है ख़ूनी भेड़
भीतर भीतर काले दांत
मूल्य हज़म हों ऐसी आंत
कर पैने कविता के तीर
अन्धकार की छाती चीर

विमुखों और उदासीनों को
भाले बरछी संगीनों को
जो चेतन हैं तू उनको भी
दीनों और कुलीनों को भी
होम हेतु भरती करता जा
आग ग़दर की तू भरता जा

देख उजाला तब आएगा
हर भूखा रोटी पायेगा
ठूहे ढह जायेंगे सारे
चमकेंगे अपने भी तारे
भाग्य नहीं पुरुषार्थ रहेगा
सदा सत्य और सत्य कहेगा

सत्य सभी के हक़ में होगा
कोई रंक न राजा होगा
हाथ हाथ को काम मिलेगा
काम के बदले दाम मिलेगा
सचमुच दिन ऐसा आएगा
हर कबीर खुल कर गायेगा

चौराहों और चौबारों पर
आरी छेनी औज़ारों पर
शिला लेख सा अंकित होगा
मानव कभी न वंचित होगा
हक़ हकूक और अख्तियार से
धर्म न्याय अपनों के प्यार से

समता का डंका बोलेगा
बंद पड़े जो पथ खोलेगा
आज यही संकल्प करेंगे
संकल्पों में रक्त भरेंगे
जो वजूद खोये हम पायें
राजपथों पर हम भी जाएँ



कविता - मांद से बाहर !

चुप  मत रह तू खौफ से
कुछ बोल
बजा वह ढोल
जिसे सुन खौल उठें सब

ये चुप्पी मौत
मरें क्यों हम
मरे सब

हैं जिनके हाँथ रंगे से
छिपे दस्तानों भीतर

जो करते वार
कुटिल सौ बार टीलों के पीछे छिपकर
तू उनको मार सदा कर वार
निकलकर मांद से बाहर

कलम को मांज
हो पैनी धार
सरासर वार सरासर वार
पड़ेंगे खून के छींटे

तू उनको चाट
तू काली बन
जगाकर काल
पहन ले मुंड की माला
ह्रदय में भर ले ज्वाला

मशअलें बुझ न जाएँ
कंस खुद मर न जाएँ
तू पहले चेत
बिछा दे खेत
भले तू एकल एकल

उठा परचम
दिखा दमखम
निरर्थक न हो बेकल
यहाँ कुरुक्षेत्र सजा है
युद्ध भी एक कला  है

नहीं उम्मीद न आशाएं
दिखा तलवार का जौहर
बना टोली चला बोली
तू सबको एक तो कर ले
सभी पीडाएं हर ले

तू है दाधीच
भुजाएं भींच
एक हर बल को कर ले
यहाँ शोषित जो जन है
तिरस्कृत हाशिये पर
तू उनका क्यों न वर ले

नहीं अब देव आयेंगे
सनातन सत्य अड़ा है
प्रश्न दर  प्रश्न खड़ा है
सगर अतृप्त रहें न
भागीरथ यत्न तो कर ले

हाँ अब  कंदील जलेंगे
चोटी पर पाँव चढ़ेंगे
आग को गर्भ से छीनो
तीर बिखरे हैं बीनो
छली ने हमें छला है
युद्ध भी एक कला है

चन्द्रगुप्तों अब जागो
न तुम तो  सच से भागो
गुरु की खोज क्या करना
चपल  अब खुद है बनना
त्याग बलिदान ध्येय हो
राष्ट्र हित मात्र प्रेय हो

किताबें बहुत हो चुकीं
अमल करने का मौसम
यही और यही वक़्त है
उबलता आज रक्त है
सदा था और आज भी
मान जन बल सशक्त है

न अब कवितायेँ होंगी
शब्द अब युद्ध करेंगे
नहीं तर्कों का भय अब
न टूटेगी ये लय  अब
समीक्षा का रथ लेकर
चतुर चापाल चला है
तो हम तैयार खड़े है

आगे बढ़ कर हो हमला
छाती चढ़ कर हो हमला
अपने मस्तक पर हमने
राष्ट्र हित रक्त मला है
युद्ध भी एक कला है


कविता - उम्मीद  की कंदील !
पिछले कुछ दिनों से परेशान
परेशान है मेरा संवेदनशील हृदय
जबसे बाज़ारों में आहट मिली है कि
आने वाला है वैश्विक प्रेम पर्व
सभी आतुर हैं संत वैलेंटाइन के योगदान को स्मरण करने को .
मैंने भी चाहा इस अवसर पर लिख सकूं एक प्रेम पगी कविता
कई बार देर तक डूबा रहा स्मृतियों - विस्मृतियों की सोच  में
बार बार खयाल आते रहे
कि कैसे चंद्रयानी योजनाओं
और फ़ोर्ब्स की सूची से संपन्न धनाढ्यों के देश में
अपनी छोटी से छोटी इच्छाओं को
सकुशल और सहजता से पूरा नहीं कर पाता हाशिये का आदमी
कैसे कुचल दी जाती है उसकी इच्छाएं और अक्सर उसकी देह भी
वृद्धावस्था पेंशन या एक राशन कार्ड का मिलना
उसके लिए नहीं होता वैलेंटाइन डे के कार्ड सरीखा
खेत बिक जाते हैं इलाज में और रखी रह जाती हैं
ग्रामीण स्वास्थय मिशन की उम्मीदें ब्लोंक की फाइलों में
कैसे कुम्भ नहाने पुण्य कमाने गया उसका कुनबा
बिखर जाता है मोअन - जो  - दड़ो की सभ्यता सा
कैसे उसकी छोटी छोटी उम्मीदें जो हम शहरियों के हितों से कभी नहीं टकराती
गाँव की चौहद्दी के भीतर दम तोड़ देती हैं
कोई ह्यूमेन राइट नहीं होता उसका
वह कभी राइटर की खबर नहीं बनता
बूट हमारे हों या अंग्रेजों के उसने उनका बुरा नहीं माना
वह खुश रहता है हमारे मॉलों  के किनारे पैदल ही मंडुआडीह से दशाश्वमेध तक चलकर
बाबा विश्वनाथ उसके हैं
उसकी गठरी को कोई खतरा नहीं
वह तो घर से निकलता ही है सुमिरन कर
गंगा मैया और महादेव की कृपा हुई तो ज़रूर लौटेगा
बन्धु - बांधवों को जिमायेगा
लेकिन वह नहीं जानता या उसके लिए इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं
कि आज व्यवस्था बहुत सुदृढ़ हो गयी है
वह पहले सा कहीं भी कभी भी किसी राह नहीं चल सकता
आज वह सुराज है जिसका  सपना उसके पुरखों ने  देखा था
आज वही सुराज लाठियों के साथ खड़ा है नगर की हर डगर पर
रुकावटों की बैरीकेडिंग के साथ
आज वह कहीं भी रूककर भौरी - चोखा नहीं लगा  सकता
और न हीं कर सकता है आराम देह के थक जाने पर
छूछ धूप  में तपती सड़क की फुटपाथ पर
क्योंकि आज सरकार जाग रही है
और उसका महकमा नहीं छोड़ेगा कोई अवसर
यह बताने का कि सभ्यता ने कितना विकास कर लिया है
यह इक्कीसवीं सदी है
सब कुछ चलता है संविधान सम्मत
हाँ मुआवजों पर हक है उसका पर मरी देह उसके किसी अपने की है
यह साबित करना है उसी को
वह भी हमारी तरह इस देश का नागरिक है
नगर पर उसका भी हक़ है और उल्लास पर भी
आज उसकी आस्था उसके फाग और ' भाग ' पर बाज़ार का कब्ज़ा है
और हम सोच रहे हैं कैसे लिखी जाए एक प्रेम कविता
अब जबकि वेलेंटाइन डे बस आ ही गया है इस खुरदुरी सी  सोच के दरवाज़े को
धकियाता बिलकुल पास
अप्रासंगिक करता मेरे टेबल पर पड़ी ' डॉ जिवागो ' और ' प्राइड एंड
प्रीजुडिस ' के पन्नों को मेरे मानस से मिटाने की कुचेष्टा के साथ
और मैं सोच रहा हूँ कब आएगा कोई चे - गवेरा या चारु मजुमदार जलाने
उम्मीद की कंदील
मुर्दों के टीले पर .



-अभिनव अरुण
वरिष्ठ उद्घोषक
आकाशवाणी वाराणसी
पूर्व वरिष्ठ उप संपादक दैनिक 'आज' जमशेदपुर
मूल निवास जनपद गाजीपुर उत्तर प्रदेश

1 comment:

Anonymous said...

samajik sarokaron kil utkrisht rachna ke liye abhinav ji ko badhai aur shubhkamnayen .

- anamika