अपंगता- समस्या या अभिशाप

Anmol Tiwari
जियो तो ऐसे जियो की मौत की ख्वाहिश कदमों पर पड़ी हो
और मरो तो ऐसे मरो की ज़िन्दगी तुम्हें वापिस ले जाने कब्र पर खड़ी हो...

विकलांगता एक ऐसी परिस्थिति है जिससे आप चाह कर भी पीछा नहीं छुड़ा सकते...एक आम आदमी छोटी-छोटी बातों पर झुंझला उठता है तो ज़रा सोचिये उन बदकिस्मत लोगों का जिनका खुद का शरीर उनका साथ छोड़ देता है.

फिर भी जीना किसे कहते है कोई इनसे इनसे सीखें. कई लोग ऐसे है जिन्होंने विकलांगता जैसी कमज़ोरी को अपनी ताकत बना ली है तो कई लोग ऐसे भी हैं जो ज़िन्दगी से निराश
होकर इसी कमज़ोरी पर सिर्फ आंसू बहाया है.

इसके बावजूद हम विकलांग लोगों से मुंह नहीं चुरा सकते क्योंकि आज भी कहीं न कहीं हम जैसे आम लोग ही इन्हें हीन भावना का शिकार बना रहे है. उनकी कमज़ोरी का मज़ाक उड़ा कर उन्हें और कमज़ोर बना रहे हैं.

उन्हें दया से देखने के बजाये उनकी मदद करें... आखिर उन्हें भी जीने का पूरा हक है और यह तभी मुमकिन है जब आम आदमी इन्हें आम बनने दें. वरना वह दिन दूर नहीं जब यह लोग अलग प्रांत की मांग करेंगे जहां इन्हें सुकून और शांति की ज़िन्दगी मिल सके.

सरकार को भी चाहिए की वह इनके अधिकारों से इन्हें रुबरु कराएं, इन्हें बंदी न बनने दें. लोग ये बात ना भूलें की अपंग और विकलांग कोई भी कभी भी बन सकता है...जिन घृणा भरी नज़रों से हम इन्हें देखते है उन्ही नज़रो में अगर खुद के किसी व्यक्तिगत आपातकाल का नजराना देख लें तो विकलांगो के प्रति ये भावना अपने आप दूर हो जाएगी.

ज़रा सोचिए इनके हालात आज के समय में जब खून के रिश्ते तक धोखा दे जाते हैं और अपना सहारा स्वयं बनना पड़ता है, ऐसे में अगर आप का खुद का शरीर ही साथ न दे तो इंसान किस उम्मीद पर जिएगा...किसके सहारे जिएगा?

फिर भी यह अपनी अलग दुनिया बनाकर खुश रहना सीख लेते है...लोगो की 'वैसी' नज़र की आदत ढाल लेते है. हालांकि सरकार ने कई योजनाएं मुहैया करायी है. एक विकलांग दिवस तक सुनिश्चित किया है पर इन सबका क्या फायदा अगर इनसे इन लोगों को कोई ख़ुशी ही न मिले. आत्मसम्मान तो फिर भी ठोकरें खा ही रहा है... लोगों के ताने सह ही रहा है.

सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि विकलांग लोगों को बेसहारा और अछूत क्यों समझा जाता है? उनकी भी दो आँखे, दो कान, दो हाथ और दो पैर हैं और अगर इनमे से अगर कोई अंग काम नहीं करता तो इसमें इनकी क्या गलती.

यह तो नसीब का खेल है... इंसान तो यह तब भी कहलायेंगे... जानवर नहीं. फिर इनके साथ जानवरों जैसा बर्ताव कहां तक सार्थक है?

किसी के पास पैसे की कमी है, किसी के पास खुशियों की, किसी के पास काम की तो अगर वैसे ही इनके शारीरिक, मानसिक, ऐन्द्रिक या बौद्धिक विकास में किसी तरह की कमी है तो क्या बड़ी बात है?

कमी तो सबमे कुछ न कुछ है ही, कोई भगवन तो है नहीं.. तो इन्हें अलग नज़रो से क्यों देखा जाए?

अगर हम इनकी मदद करने के बारे में सोचें तो हर कोई चैन से साथ रह पायेगा, जैसे की अगर किसी के सुनने की शक्ति कमज़ोर है तो उसे 'लिप-रीडिंग' यानी होठों को पढ़ने की विद्या, सिखाई जा सकती है.

इनकी आँखों का इस्तेमाल करके इन्हें सशक्त बनाया जा सकता है... वैसी ही अगर कोई देख नहीं सकता तो उसके सुनने की शक्ति को इतना मज़बूत बनाये कि वो कानों से ही देखने लगे और नाक से महसूस करले.

कोई अंग ख़राब है तो ऐसा पहनावा दें कि वो छिप जाए और इंसान पूरे आत्मविश्वास के साथ सर उठाकर चल सके. ऐसी कई तमाम चीज़े हैं जिससे विकलांगता की समस्या को अनदेखा किया जा सकता है और दवा और दुआ तो दो ऐसे विकल्प है जिनपर यह दुनिया चलती है.

अब इस समस्या को हम इस दुनिया से मिटा नहीं सकते पर हाँ इससे लड़कर हम इसे दुनिया से गायब ज़रूर कर सकते हैं.. बात सिर्फ पहल करने की है.

-अनमोल तिवारी

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