दिल्ली की लाइफलाइन डीटीसी

जी हां यदि डीटीसी को दिल्ली वालों की लाइफ लाइन कहा जाए तो मैं नहीं समझता दिल्ली वालों को कोई हैरानी होगी.

जहां तक मेरे खुद की बात है तो मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता क्योंकि मैं जहां से हूं वहां बस में टिकट लेने पर सीट को अपना जन्मसिद्ध अधिकार माना जाता है.

जब मैं यहां पहली बार आया तो डीटीसी की नम्बरों मे ऐसा उलझा जैसे कभी दसवीं की सवालों में उलझा करता था. तब मेरी उलझन और बढ़ी जब मैं बस के अन्दर पहुंचा सीट
खाली थी. पर कुछ महानुभाव खड़े थे

मैने बिना इधर उधर देखे अपनी सीट पक्की कर ली. पर अगले हीं क्षण मुझे एक महिला ने बड़े हीं रौब से उठने को कहा. उसके रौब ने मुझे वो अधिकार समझा दिया जो शायद मैं नजरअंदाज करके बैठा था. तब जाकर मैंने देखा की यहां तो युवाओं के लिए कोई सीट हीं मुक्कमल नहीं है.

हमारे लिए जो सुरक्षित सीट मानी जाती है वो भी विकलांगता की श्रैणी में आते हैं. अब डीटीसी वालों को कौन समझाए की जान हमलोगों में भी होता है. थकान हमें भी महसूस होती है और खड़े होने पर कष्ट हमें भी होता है.

एक बार मैं बैठा था और उधर से एक महानुभाव मेरे पास आये, और मुझे सीट छोड़ने को कहा. मैनें बड़ी हैरानी से उसकी तरफ देखा उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी. और उसने अपनी पैरों की और इशारा किया वो पैर से विकलांग था मैनें पहली बार किसी विकलांग को अपनी विकलांगता पर खुश होते देखा था. इसके लिए कहीं न कहीं डीटीसी धन्यवाद के पात्र है.

दिल्ली में डीटीसी का यह कदम वास्तव में प्रंशसा के काबिल है क्योंक आए दिन बसों में जानबूझ कर मनचलों द्वारा धक्का-मक्की की जाती है. हाल हीं में हरियाणा रोडवेज में दो बहनों के साथ हुई घटना इस बात को और भी
पुख्ता करती है कि क्यों महिलाओं के लिए बसों में आरक्षित सीटें होनी चाहिए.




-समीर कुमार ठाकुर

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