एक आम आदमी की जिंदगी

अर्चना सिंह
मैं हूं आम आदमी. मेरी कोई खास पहचान नहीं है. मैं दिन भर सड़क पर ठोकरें खाता हूं और दर-दर भटकता रहता हूं.

मेरा घर सड़क के किनारे बसता है. दिन में तो मैं किसी तरह इधर-उधर घुम के रह लेता हूं लेकिन रात में तो मेरा आशियाना खुला आसमान होता है.

मै कुड़े-कचरे में पलता बढ़ता हूं. मैं बासी खाना खाता हूं, फिर भी मुझे बीमारी नहीं होती.

मेरे देश में आम आदमी को सरकार उस समय
याद करती है जब उन्हें वोट लेना होता है. चुनाव के समय तो नेता हमारे सामने हाथ जोड़कर विनती करते कि मुझे वोट देना हम तुम्हे घर देंगे, नौकरी देंगे और साथ ही पैसे भी दे जाते.

मैं भी इसी देश में रहता हूं यह सरकार को तब पता चलता है जब उन्हे अपना वोट बैंक भरना होता.

सरकार को पांच साल के अन्दर तो हमारी याद ही नहीं, याद तो जब वोट का टाइम आता तो हमें कहीं से भी खोज लेती.

सरकार वादे तो बहुत करती वोट लेने के लिये लेकिन जीतने के बाद कुछ याद नहीं रहता. मुझे क्या करना है कोई भी पार्टी जीते मै तो बस वही रहूंगा जो था.

वैसे तो सरकार हमें कुड़े के ढेर समझती है और क्या बताऊं मैं अपने बारे में... मैं तो मंदिर और मस्जिदों के पास भी रहता हूं एक कोने में पड़ा हुआ. वहां मुझे खाने को कुछ मिल ही जाता है.

मेरे लिये हर मौसम एक समान क्योंकि मै जाड़े में भी एक ही फटा पुराना कपड़ा पहन कर रह लेता हूं और फुटपाथ पर ही सो लेता हूं. कभी-कभी तो मेरी सुबह नहीं होती. ठंड से मेरी मौत हो जाती है और सड़क पर सोते हुये तो मुझे गाड़ियों में चलने वाले लोग भी कुचल कर चले जाते हैं.

मैं आम आदमी सड़क पर पैदा हुआ और सड़क पर ही मरना यही है मेरी कहानी...

-अर्चना सिंह

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