बेटा-बेटी का फ़र्क

सुगंधा झा
आज के समय में भी बेटा-बेटी में इतना फ़र्क क्यों होता है?

जहाँ लडकियां आज किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं है वहाँ पर इस तरह का भेदभाव ठीक नहीं है. बेटा-बेटी में फ़र्क करना कोई समझदारी नहीं है.

घर में अगर बेटी है तो इसकी ख़ुशी बेटों की तरह मनानी चाहिये. वह बेटों से ज्यादा आज्ञाकारी होती है.

बेटी की ख़ुशी से ही हर घर फलता-फूलता है, उनके लिए दिलों में सम्मान होना चाहिये.

अभी हाल ही में हरियाणा के गुडगाँव में बेटा पैदा न
करने पर पति ने अपनी पत्नी की हत्या कर दी. यह मामला कोई नया नहीं है, आमतौर पढ़े- लिखे सुखी सम्पन परिवार वाले ही इस तरह का भेदभाव करते हैं.

अगर बेटियों को समान शिक्षा और तरक्की के समान मौके मिलें तो वो समाज की तस्वीर बदल सकती हैं. माता-पिता अपने बेटों को बचपन से ही महिलाओं का सम्मान करना सिखाएं, उन्हें बताएं कि लड़कियां उनसे किसी मामलें में पीछे नहीं हैं.

बेटियों को समझाना होगा कि सिर्फ़ शादी करना और अच्छी पत्नी बनना ही उनके जीवन का लक्ष्य नहीं हैं. उन्हें भी पुरुषों की तरह महत्वाकांक्षी बनने व प्रतियोगिता में सबको पछाड़ने का हक़ हैं.

बेटियों की शिक्षा से ही समाज में बदलाव आ सकता है, रुढ़िवादी सोच के कारण आज भी कई जगहों पर बेटा-बेटी में भेदभाव हो रहा है.

जब तक समाज इस संकीर्ण मानसिकता से ऊपर नहीं उठता तब तक इस तरह का भेदभाव मिटने से रहा.

माता-पिता क्यों अपनी बेटियों पर दवाब बनाते हैं कि वे अपनी शादी बचाने और घर की शांति बनाए रखने के लिए समझौतें करें.

आखिर बेटियां ही क्यों समझौते और तरक्की के नाम पर अपने करियर को त्यागें. यह सीख बेटो को क्यों नहीं दी जाती हैं?

बेटी बचाओ अभियान को जोर पकड़ने की अब बहुत जरूरत हैं. बेटियां बोझ नहीं बल्कि बेटियां घर की लक्ष्मी होती है. वह एक नहीं बल्कि दो- दो घरों की बागड़ोर संभालती है.

यह समस्या इतनी बढ़ गयी है कि इसे रोकने के लिए एक क्रांति की जरूरत है. नहीं तो हमारे देश की स्थिति भी चीन जैसी होगी जहां लड़कों को शादी के लिए लड़कियां नहीं मिल रही हैं.

इसलिए जितना जरूरी बेटा हैं उतनी ही बेटी भी जरूरी है.

कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए लोगों की सोच में बदलाव जरूरी है. इसके बिना प्रयास निरर्थक है. यह शुरुआत हमें अपने घर और आसपास से ही करनी चाहिए.

पंजाब और हरियाणा से जल्द सबक नहीं लिया तो समस्त देश कन्या भ्रूण हत्या के दुष्परिणाम भुगतेंगे.

-सुगंधा झा

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