नेपाल में संवैधानिक संकट

निर्भय कर्ण
नेपाल के लिए एक त्रासदी ही कहा जाए जिससे नेपाल समय दर समय जूझता रहा है. जब से नेपाल में राजशाही समाप्त हुआ और लोकतंत्र के लिए माओवादी आंदोलन दृढ़ संकल्प से संघर्षशील हुआ. तब से न जाने कौन सी ताकत ने नेपाल को अपनी काली मनहूस छाया से जकड़ लिया कि लाख कोशिश करने के बावजूद वह अब तक लोकतंत्र के सपने को पूर्ण रूपेण साकार नहीं कर सका. वर्तमान हालत की वस्तुस्थिति को टटोला जाए तो
यहां पर संवैधानिक संकट बरकरार है और अभी भी कोई यह कोई नहीं कह सकता कि नेपाल में संविधान बनने में और कितना समय लगेगा और इसके लिए अभी और कितनों को कुर्बानी देनी होगी.

संविधान किसी भी देश की आत्मा होती है जिस पर पूरा शासन-प्रशासन टिका होता है. इसके जरिए जनता सहित अफसर, मंत्री-संतरी सहित सभी को अपनी सीमा में रहकर कर्तव्य व अधिकारों का अनुसरण करना पड़ता है तब जाकर कोई देश लोकतांत्रिक कहलाता है. नेपाल अपने सभी सभासदों के माध्यम से संविधान बनाने की राह पर अग्रसर था लेकिन विभिन्न दलों में वैचारिक मतभेद होने की वजह से इसे लगातार धक्का पहुंचता रहा है.

इससे नेपाल के अंदुरूनी बिगड़ती हालत का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. लेकिन इसकी सबसे भयावह स्थिति 20 जनवरी, 2015 की आधी रात को नेपाली संविधान सभा में देखने को मिली, जब कुछ सभासदों ने संविधान को लेकर धक्का-मुक्की और मार-पिटाई की. इसके दो दिन बाद ही यानि 22 जनवरी को संविधान पेश हो जाना था और उस पर राष्ट्रपति को हस्ताक्षर कर देना था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और तब से ‘प्रश्नावली निर्माण समिति’ और मसौदा बनाने के प्रश्न पर ही संसद में घमासान मचा हुआ है. ज्ञात हो कि संविधान बनाने की कोशिश में अब तक नेपाल में दो बार संविधान सभा के चुनाव हो चुके हैं.

पहली संविधान सभा का कार्यकाल मई 2008 से मई 2012 तक रहा. प्रारंभिक तौर पर सभा दो साल के लिए चुनी गई, लेकिन चार साल बीतने के बाद भी संविधान नहीं बन पाया. तब आम राय न बनने से संविधान बनाए बिना ही संविधान सभा भंग करनी पड़ी थी. आखिरकार दूसरी संविधान सभा का चुनाव कराना पड़ा और जनवरी, 2013 में नई संविधान सभा चुनी गई. लेकिन दो साल बीत जाने के बाद अब भी संविधान नहीं बन पाया है.

उपरोक्त बातों से यह स्पष्ट हो चला कि नेपाल में संवैधानिक संकट का कितना बुरा हाल है. दूसरी ओर, यह भी सवाल उत्पन्न होता है कि क्या नेपाल में नए संविधान के प्रारूप के संकट के पीछे पड़ोसी देशों सहित पश्चिम देशों की इच्छा भी रोड़े अटका रही है तो इसका जवाब आसानी से हां में मिल जाता है. चूंकि नेपाल चीन व भारत के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण देश है और अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा की वजह से नेपाल में राजनीतिक हलचल में विशेष दिलचस्पी लेता है. वहीं पश्चिमी देश नेपाल के जरिए इसके पड़ोसी देशों को नियंत्रित करने की चाहत रखती है.

यहां के नए संविधान के बारे में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह स्पष्ट कहा था कि ‘‘संविधान वो हो जो सर्वजन समावेशक हो.’’ हाल में भी यह बयान आया कि नेपाल का संविधान सभी राजनीतिक दलों के सहमति से होनी चाहिए’’. लेकिन यहां पर राजनीतिक दलों की सामूहिक सहमति दूर की कौड़ी नजर आती है.

दूसरी बड़ी बात, भारत में सत्तासीनन भारतीय जनता पार्टी व इसे समर्थन करने वाली विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नेपाल को एक हिंदू राष्ट्र के रूप में देखना चाहती है जबकि यूरोपियन संघ भी नहीं चाहता कि नेपाल एक बार फिर से विश्व का इकलौता हिंदू राष्ट्र घोषित हो जाए. जबकि नेपाल को यह समझ नहीं आ रहा है कि आखिर वह किस दिशा में आगे बढ़े.

इसकी सबसे बड़ी वजह है भारत और चीन की समर्थन करने वाली अलग-अलग पार्टियां नेपाल में पक्ष-विपक्ष में गतिशील है. जिससे ये पार्टियां अपने-अपने विचारों को लेकर टकराव की स्थिति उत्पन्न करते रहते हैं. हाल में जो कभी नेपाल को हिंदू राष्ट्र बनाने के खिलाफ थे, वह भी अब इसका समर्थन करने लगे हैं. वर्तमान हालात में यह स्पष्ट हो गया कि एनेकपा (माओवादी) के नेतृत्व वाला 30 दलों का ‘संयुक्त मोर्चा’ किसी भी बातचीत का बहिष्कार करेगा.

हाल ही में 28 फरवरी को काठमांडू में खुला मंच में आयोजित 30 दलों को संयुक्त मोर्चा की आमसभा की अपार सफलता से उत्साहित होकर प्रचंड ने कहा कि अब एक निर्णायक आंदोलन होगा जिससे संविधान की घोषणा सड़क से की जाएगी. इससे इस बात का प्रमाण मिल जाता है कि यह संयुक्त मोर्चा संविधान सभा से निर्मित संविधान को स्वीकार नहीं करेगी और एक नए आंदोलन को जन्म देगी. जबकि ज्ञात हो कि नेपाली कांग्रेस, नेकपा एमाले, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी, राष्ट्रीय जनमोर्चा एवं कुछ निर्दलीय सभासद सहमति से नहीं भी तो प्रक्रिया से भी संविधान बनाने के प्रति अति गंभीर हैं.

नेपाल के राजनीतिक दलों के बीच राज्यों के बंटवारे व गणतंत्र के स्वरूप व अन्य मुद्दों को लेकर भी आम सहमति नहीं बन पा रही है. ज्ञात हो कि नेपाल में पहाड़ी और मधेशी के बीच की रंजिश काफी पुरानी है. यहां पर मधेशी की आबादी पहाड़ी से काफी अधिक है, इसके बावजूद पहाड़ी का शासन-प्रशासन में भागीदारी मधेशी के अपेक्षा काफी अधिक होती है. इस स्थिति को अब मधेशी पलटना चाहते हैं इसलिए मधेशी समर्थक दल अपने-अपने हिसाब से नए संविधान के जरिए शासन-प्रशासन में हिस्सेदारी चाहती है तो वहीं पहाड़ी समर्थक दल इसके विपरीत है. वहीं माओवादी दल राज्य का निर्माण जातीय आधार पर चाहती है, जो कई नए विवादों को जन्म दे सकती है इसलिए कांग्रेस और एमाले इसके पक्ष में नहीं है.

इस प्रकार नेपाल की राजनीतिक पार्टियां दो भागों में बंट चुकी है और इनके स्वार्थ के चलते नेपाल में संवैधानिक संकट गहराता जा रहा है. ऐसे में यह स्पष्ट है कि सभी दलों के बीच आम सहमति मुश्किल ही नहीं असंभव सा है. लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि देशवासियों को उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए और यह उम्मीद किया जाना चाहिए कि कोई न कोई बीच का रास्ता जरूर निकल आएगी.

-निर्भय कर्ण
/सुनील कुमार सिंह,
क्वार्टर संख्या-4, किदवईपुरी,
नजदीक-सूर्या किरण अस्पताल,
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